Wednesday, May 26, 2010

नैनीताल क्या नहीं...क्या क्या नहीं, यह भी...वह भी, यानी "सचमुच स्वर्ग"

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`छोटी बिलायत´ हो या `नैनीताल´, हमेशा रही वैश्विक पहचान

नवीन जोशी, नैनीताल। सरोवर नगरी नैनीताल कभी विश्व भर में अंग्रेजों के घर `छोटी बिलायत´ के रूप में जाना जाता था, और अब नैनीताल के रूप में भी इस नगर की वैश्विक पहचान है। इसका श्रेय केवल नगर की अतुलनीय, नयनाभिराम, अद्भुत, अलौकिक जैसे शब्दों से भी परे यहां की प्राकृतिक सुन्दरता को दिया जाऐ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

नैनीताल नगर का पहला उल्लेख "त्रि-ऋषि-सरोवर" के नाम से स्कंद पुराण के मानस खंड में मिलता है, कहा जाता है कि अत्रि, पुलस्त्य व पुलह नाम के तीन ऋषि तिब्बत में स्थित मानसरोवर झील को जाते हुए यहाँ से गुजर रहे थे कि उन्हें जोर की प्यास लग गयी इस पर उन्होंने अपने तपोबल से यहीं मानसरोवर का स्मरण करते हुए एक गड्ढा खोदा और उसमें मानसरोवर झील का पवित्र जल भर दिया इस प्रकार नैनी झील का धार्मिक महात्म्य मानसरोवर झील के बराबर माना जाता है. वहीँ एक अन्य मान्यता के अनुसार नैनी झील को देश के 64 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है कहा जाता है कि भगवान शिव जब माता सती के दग्ध शरीर को जब आकाश मार्ग से कैलाश पर्वत की और ले जा रहे थे, तभी माता सती की एक आँख (नैन या नयां) यहाँ आकर गिरी थी, जिस कारण इसे नयनताल, नयनीताल व नैनीताल कहा गया. यहाँ नयना देवी का पवित्र मंदिर भी स्थित है

आंकड़ों में नैनीताल

नैनीताल समुद्र सतह से 2084 मीटर (6837 फीट) की ऊंचाई एवं 29.38 ° अक्षांश व 79.45 ° देशांतर पर स्थित है. 2001 की भारतीय जनगणना के अनुसार नैनीताल की जनसँख्या 38,559 की थी. जिसमें पुरुषों और महिलाओं की जनसंख्या क्रमशः 46% से 54% है. यहाँ की औसत साक्षरता दर 81% है, जो राष्ट्रीय औसत 59.5% से अधिक है इसमें भी पुरुष साक्षरता डर 86% और महिला साक्षरता 76% है. नैनीताल में, जनसंख्या का 9% उम्र के 6 साल के अंतर्गत है। 18 नवम्बर 1841 को इसकी वर्तमान रूप में पीटर बैरन ने खोज की।1842 में आगरा अखबार में समाचार छपने के बाद 1850 तक यह नगर "छोटी बिलायत" के रूप में देश-दुनियां में प्रसिद्ध हो गया। 1850 में ही नैनीताल जिमखाना की स्थापना के बाद नगर में खेलों के साथ पर्यटन को भी बढ़ावा मिलने लगा। इससे पूर्व १८४७ में यहाँ पुलिस व्यस्था शुरू हुयी, 1862 में यह नगर तत्कालीन (उत्तर प्रान्त) नोर्थ प्रोविंस की ग्रीष्मकालीन राजधानी व साथ ही लार्ड साहब का मुख्यालय बना। साथ ही यह 1896 में सेना की उत्तरी कमांड का एवं 1906 से 1926 तक पश्चिमी कमांड का मुख्यालय रहा। 1881 में यहाँ ग्रामीणों को बेहतर शिक्षा के लिए डिस्ट्रिक्ट बोर्ड व 1892 में रेगुलर इलेक्टेड बोर्ड बनाए गए 1889 में 300 रुपये प्रतिमाह के डोनेशन से नगर में पहला भारतीय कॉल्विन क्लब राजा बलरामपुर ने शुरू किया1890 में "मीट्स एंड स्पेशल वीक" के रूप में वर्तमान "नैनीताल महोत्सव" की शुरुआत हुयी, जिसमें तब इंग्लॅण्ड, फ़्रांस, जर्मनी व इटली के लोक-नृत्य होते थे, तथा केवल अंग्रेज और आर्मी व आईसीएस अधिकारी ही भाग लेते थे । इसी वर्ष तत्कालीन म्युनिसिपल कमिश्नर (तब पालिका सभाषदों के लिए प्रयुक्त पदनाम) जिम कार्बेट (अंतरराष्ट्रीय शिकारी) ने झील किनारे वर्तमान बेंड स्टैंड की स्थापना की थी। 1890 में यहाँ विश्व के सर्वाधिक ऊँचे याट (पाल नौका-राकटा) क्लब (वर्तमान बोट हॉउस क्लब) की स्थापना हुयी। 1895 में हाल में बंद हुए कैपिटोल सिनेमा में कैपिटोल नांच घर तथा फ्लैट मैदान में पोलो खेलने की शुरुआत हुयी। 1937 तक यहाँ वर्ष में दो बार जून माह (रानीखेत वीक) व सितम्बर-अक्टूबर (आईसीएस वीक) में थ्री-ए-साइड पोलो प्रतियोगिताएं होती थीं। इन्हीं 'वीक्स' में हवा के बड़े गुब्बारे भी उडाये जाते थे। १८७२ में नैनीताल सेटलमेंट किया गयाकुमाऊँ में कुली बेगार आन्दोलनों के दिनों में 1921 में इसे पुलिस का मुख्यालय भी बहाया गया। वर्तमान में यह कुमाऊँ मंडल का मुख्यालय है, यहीं उत्तराखंड राज्य का उच्च न्यायालय भी है। यह भी एक रोचक तथ्य है कि अपनी स्थापना के समय सरकारी दस्तावेजों में 1841 में यह नाईनीटाल (Naayineetaal), 1872 से नायनीटाल (Naayanitaal) व 1892 से नैनीटाल (Nainitaal) तथा आजादी के बाद नैनीताल लिखा गया

अंग्रेजों ने नैनीताल को बसाया, संवारा और बचाया भी

नैनीताल ही शायद दुनिया का ऐसा इकलौता नगर हो, जिसे इसके अंग्रेज निर्माताओं ने न केवल खोजा और बसाया ही वरन इसकी सुरक्षा के प्रबंध भी किऐ। कहा जाता है कि 1815 से 1830 के बीच किसी समय कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर जीडब्लू ट्रेल यहां पहुंचे और इसकी प्राकृतिक सुन्दरता देखकर अभिभूत हो गए. उन्होंने इस स्थान से जुड़ी स्थानीय लोगों की गहरी धार्मिक आस्था को देखते हुऐ इसे स्वयं अंग्रेज होते हुए भी कंपनी बहादुर की नज़रों से छुपाकर रखा। शायद उन्हें यह भी डर था कि मनुष्य की यहाँ आवक बड़ी तो यहाँ की सुन्दरता पर दाग लग जायेंगे. लेकिन आज जब प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं, हरे वनों में कमोबेश कंक्रीट के पहाड़ उग गए हों, बावजूद यहाँ की खूबसूरती का अब भी कोई सानी नहीं है। मि. ट्रेल ने स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के बारे में किसी अंग्रेज को न बताने की ताकीद की थी। यही कारण था कि 18 नवंबर 1841 में जब शहर के खोजकर्ता के रूप में पहचाने जाने वाले रोजा-शाहजहांपुर के अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन कहीं से इस बात की भनक लगने पर जब इस स्थान की ओर आ रहे थे तो किसी ने उन्हें इस स्थान की जानकारी नहीं दी। इस पर बैरन को एक व्यक्ति के सिर में भारी पत्थर रखवाना पड़ा। उसे आदेश दिया गया, इस पत्थर को नैनीताल नाम की जगह पर ही सिर से उतारने की इजाजत दी जाऐगी। इस पर मजबूरन वह व्यक्ति बैरन को सैंट लू गोर्ज (वर्तमान बिडला चुंगी) के रास्ते नैनीताल लेकर आया। उनके साथ तत्कालीन आर्मी विंग केसीवी के कैप्टन सी व कुमाऊँ वर्क्स डिपार्टमेंट के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर कप्तान वीलर भी थे. बैरन ने बाद में आगरा अखबार में नैनीताल के बारे में पहला लेख लिखा "अल्मोड़ा के पास एक सुन्दर झील व वनों से आच्छादित स्थान है जो विलायत के स्थानों से भी अधिक सुन्दर है"। यह भी उल्लेख मिलता है कि उसने यहाँ के तत्कालीन स्वामी थोकदार नर सिंह को डरा-धमका कर, यहाँ तक कि उसे पहली बार नैनी झील में लाई गयी नाव से बीच में ले जाकर डुबोने की धमकी देकर इस स्थान का स्वामित्व कंपनी बहादुर के नाम जबरन कराया. बाद में नगर की स्थापना के प्रारंभिक दौर में 1842 -43 में कप्तान एमोर्ड, असिस्टंट कमिश्नर बैरन, कप्तान बी यंग, टोंकी तथा पीटर बैरन को लीज पर जमीनों का आवंटन हुआ. बैरन ने पिलग्रिम लोज के रूप में नगर में पहला भवन बनाया। जेएम किले की पुस्तक में 1928 में नगर के तत्कालीन व पहले पदेन पालिकाध्यक्ष व कुमाऊं के चौथे कमिश्नर लूसिंग्टन ने द्वारा भी नगर में एक भवन के निर्माण की बात लिखी गयी है, किन्तु अन्य दस्तावेज इसकी पुष्टि इस की पुष्टि नहीं करते। 1845 में लूसिंग्टन ने इस नगर में स्कूल, कालेज जैसे सार्वजनिक हित के कार्यों के अतिरिक्त भूमि लीज पर दिऐ जाने की व्यवस्था समाप्त कर दी थी। लूसिंग्टन की मृत्यु केवल 42 वर्ष की आयु में यहीं हुयी,उनकी कब्र अब भी नैनीताल में धुल-धूसरित अवस्था में मौजूद है। उन्होंने नगर में पेड़ों के काटने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन कम-कम करके भी 1880 तक नगर में उस दौर के लिहाज से काफी निर्माण हो चुके थे और नगर की जनसंख्या लगभग ढाई हजार के आसपास पहुँच गयी थी, ऐसे में 18 सितम्बर का वह मनहूस दिन आ गया जब केवल तीन दिन की भारी बरसात के बाद आठ सेकेण्ड के भीतर नगर में वर्तमान रोप-वे के पास ऐसा विनाशकारी भूस्खलन हुआ कि 151 लोग, उस जमाने का नगर का सबसे विशाल `विक्टोरिया होटल´ और मि. बेल के बिसातखाने की दुकान व तत्कालीन बोट हाउस क्लब के पास स्थित वास्तविक नैनादेवी मन्दिर जमींदोज हो गऐ। यह अलग बात है कि इस विनाश ने नगर को वर्तमान फ्लैट मैदान के रूप में अनोखा तोहफा दिया। वैसे इससे पूर्व 1867 में नगर की आलमा पहाडी पर बड़ा भूस्खलन हुआ था, जिसके कारण तत्कालीन सेंट लू गोर्ज स्थित राजभवन की दीवारों में दरारें आ गयी थीं। बहरहाल, अंग्रेज इस घटना से बेहद डर गऐ थे और उन्होंने तुरन्त पूर्व में आ चुके विचार को कार्य रूप में परिणत करते हुए नगर की कमजोर भौगौलिक संरचना के दृष्टिगत समस्या के निदान व भूगर्भीय सर्वेक्षण को बेरजफोर्ड कमेटी का गठन किया। पहले चरण में सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीन, अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) का निर्माण अंग्रेज सरकार ने दो लाख रुपये में किया गया। बाद में 80 के अंतिम व 90 के शुरुआती दशक में नगर पालिका ने तीन लाख रुपये से अन्य नाले बनाए। 1898 में आयी तेज बारिश ने लोंग्डेल व इंडक्लिफ क्षेत्र में ताजा बने नालों को नुक्सान पहुंचाया, जिसके बाद यह कार्य पालिका से हटाकर पीडब्लूडी को दिए गए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों से 35 से अधिक नाले बनाए गए। 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों व 100 शाखाओं का निर्माण कर लिया गया। बारिश में भरते ही कैचपिट में भरा मालवा हटा लिया जाता था। अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलियानाले में भी सुरक्षा कार्य करवाऐ, जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुऐ हैं, जबकि कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे द्वारा बलियानाला में किये गए कार्य लगातार दरकते जा रहे हैं। अंग्रेज इस शहर में 1920 के दशक में ही बिजली ले आऐ थे और उनकी यहां `माउंटेन ट्रेन´ लाने की योजना भी थी। 1883-84 में बरेली से हल्द्वानी को रेल लाइन से जोड़ा गया था और इसके कुछ समय बाद काठगोदाम तक रेल लाइन बिछाई गई। 24 अप्रैल 1884 को पहली ट्रेन हल्द्वानी पहुंची थी। 1889 में काठगोदाम से नैनीताल के लिए शिमला व दार्जिलिंग की तर्ज पर मेजर जनरल सीएम थॉमसन द्वारा काठगोदाम से रानीबाग, दोगांव, गजरीकोट, ज्योलीकोट व बेलुवाखान होते हुऐ रेल लाइन बिछाकर यहां `माउंटेन ट्रेन´ लाने की योजना बनाई गई। अंग्रेजों ने नगर के पास ही स्थित खुर्पाताल में रेल की पटरियां बनाने के लिए लोहा गलाने का कारखाना भी स्थापित कर दिया था, लेकिन नगर की कमजोर भौगौलिक स्थिति इसमें आड़े आ गयी। इसके बाद 1887 में ब्रेवरी से रोप-वे बनाने की योजना बनायी गयी, 1890 में इस हेतु ब्रेवरी में जमीन खरीदी गयी और पालिका से 1.8 लाख रुपये मांगे गए, तब पालिका की वार्षिक आय महज 25 हजार रुपये सालाना थी. धन की कमी से यह योजना भी परवान न चढ़ सकी तब आंखिरी विकल्प के रूप में सड़क बानायी गयी. 1919 में रोप-वे के लिए ब्रेवरी के निकट कृष्णापुर में बिजलीघर स्थापित कर लिया गया था, इस से रोप-वे पर यातायात तो शुरू न हो सका, अलबत्ता १ सितम्बर 1922 को बिजली के बल्बों से जगमगाकर नैनीताल प्रदेश का बिजली से जगमगाने वाला पहला शहर जरूर बन गया. यहाँ नैनी झील से ही लेजाये गए पानी से 303 केवीए की बिजली बनती थी. 1891 में नगर को यातायात के लिए सड़क के अंतिम विकल्प पर कार्य हुआ. बेलुँखान, बल्दियाखान व नैना गाँव होते हुए बैलगाड़ी की सड़क (कार्ट रोड) बनायी गयी, जो हनुमान्गादी के पास वर्तमान में पैदल पगडंडी के रूप में दिखाई देती है. इसके पश्चात 1899 में भवाली को नैनीताल से पहले सड़क से जोड़ा गया, और फिर ज्योलीकोट से नैनीताल की वर्तमान सड़क बनी। हाँ, इससे पूर्व 1848 में माल रोड बन चुकी थी।1916 में इसका निर्माण पूर्ण हुआ। 14 फरवरी १९१७ को नगर पालिका ने पहली बार नगर में वाहनों के परिचालन के लिए उपनियम (बाई-लाज) जारी कर दिए गए, जिनके अनुसार देश व राज्य के विशिष्ठ जनों के अलावा किसी को भी माल रोड पर बिना पालिका अध्यक्ष की अनुमति के पशुओं या मोटर से खींचे जाने वाले भवन नहीं चलाये जा सकते थे। माल रोड पर वाहनों का प्रवेश प्रतिबंधित करने के लिए जीप-कार को 10 व बसों-ट्रकों को 20 रुपये चुंगी पड़ती थी, 1 अप्रेल से 15 नवम्बर तक सीजन होता था, जिस दौरान शाम 4 से 9 बजे तक चुंगी दोगुनी हो जाती थी। नियमों के उल्लंघन पर तब 500 रुपये के दंड का प्राविधान था । १९२५ में प्रकाशित नगर के डिस्ट्रिक्ट गजट आफ आगरा एंड अवध के अनुसार तब तक तल्लीताल दांत पर 88 गाड़ियों की नैनीताल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी स्थापित हो गयी थी, जिसकी लारियों में काठगोदाम से ब्रवेरी का किराया 1 .8 व नैनीताल का 3 रूपया था। किराए की टैक्सियाँ भी चलने लगीं थीं। अंग्रेजों ने यहाँ बकिंघम पैलेश की प्रतिकृति के रूप में गौथिक शैली में राजभवन बनाया, ऐसी नगर में और भी कई इमारतें आज भी नगर में यथावत हैं जो अपने पूर्व हुक्मरानों से कुछ सीखने की प्रेरणा देती हैं। यही कारण है कि नैनीताल में कई बार लोग पूछने लगते हैं कि अंग्रेज इतने ही बेहतर थे तो उन्हें देश से भगाया ही क्यों जा रहा था। इस प्रश्न का उत्तर है नैनीताल उन्हें अपने घर जैसा लगा था, और इसी लिऐ वह इसे अपने घर की तरह ही सहेज कर रखते थे। इसीलिऐ इसे `छोटी बिलायत´ भी कहा जाता था, पर अफसोस कि यह नगर इस शहर के निवासियों का भी है, और वह इस नगर के लिए शायद उतना नहीं कर पा रहे हैं। यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि नगर में पर्यटन की शुरुआत का शये एक अंग्रेज महिला मेरी जेन कार्बेट को जाता है, जिन्होंने सबसे पहले अपना घर किराए पर दिया था. इसके बाद ही 1870 -72 में मेयो होटल के नाम से टॉम मुरे ने नगर के पहले होटल (वर्तमान ग्रांड होटल) का निर्माण कराया। जेन की मृत्यु 16 मई 1924 को हुयी, उन्हें सैंट जोर्ज कब्रस्तान में लूसिंग्टन के करीब ही दफनाया गया था। आज इन कब्रों में नाम इत्यादि लिखने में प्रयुक्त धातु भी उखाड़ कर चुरा ली गयी है। 1892 में रैमजे हॉस्पिटल की स्थापना हुयी, और 1897 में बोट हाउस स्थापित हुआ। १८८० में यहाँ ड्रेनेज सिस्टम बन गया था।

आसान पहुंच में है नैनीताल

पन्तनगर (72 किमी) तक हवाई सेवा से भी आ सकते हैं। काठगोदाम (34 किमी) देश के विभिन्न शहरों से रेलगाड़ी से जुड़ा है, यहां से बस या टैक्सी से आया जा सकता है।

बहुत कुछ है देखने को

नैनी सरोवर में नौकायन व मालरोड पर सैर का आनन्द जीवन भर याद रखने योग्य है। इसके अलावा नैना पीक (2610 मी.), स्नो भ्यू (2270 मी.), टिफिन टॉप (2292 मी.) से नगर एवं तराई क्षेत्रों के ´बर्ड आई व्यू´ लिए जा सकते हैं तो हिमालय दर्शन (9 किमी) से मौसम साफ होने पर उम्मीद से कहीं अधिक पूरे 365 किमी की हिमालय की अटूट पर्वत श्रृंखलाओं का नयनाभिराम दृश्य एक नज़र में देखा जा सकता है, लेकिन तीन किमी की पैदल ट्रेकिंग कर नैना पीक तीन किमी से हिमालय के दर्शन करना अनूठा अनुभव देता है। जहां से पर्वतराज हिमालय की अटूट श्वेत-धवल क्षृंखलाओं में प्रदेश के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों के साथ पड़ोसी राष्ट्र नेपाल की सीमाओं को एकाकार होते हुऐ देखना एक अनूठा अनुभव होता है। यहां से बद्रीनाथ, नीलकंठ, कामेत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट व पंचाचूली होते हुऐ नेपाल के एपी नेम्फा की एक, दो व तीन सहित अन्य चोटियों की 365 किमी से अधिक लंबी पर्वत श्रृंखला को एक साथ इतने करीब से देखने का जो मौका मिलता है, वह हिमालय पर जाकर भी सम्भव नहीं। इसके अलावा सैकड़ों किमी दूर के हल्द्वानी, नानकमत्ता, बहेड़ी, रामनगर, काशीपुर तक के मैदानी स्थलों को यहां से देखा जा सकता है। इसके अलावा सरोवरनगरी का यहां से इन दिनों `बर्ड आई व्यू´ लेने का भी यही सही समय है। इस मौसम में हिमालय पर बादल एवं कोहरे से वातावरण में धुंध छाने के कारण इन चोटियों के दर्शन नहीं हो पाते हैं। किलबरी व पंगोठ (20 किमी) में प्रकृति का उसके वास्तविक रूप् में दर्शन, मां नयना देवी मन्दिर, गुरुद्वारा श्री गुरुसिंघ सभा, जामा मस्जिद व उत्तरी एशिया के पहली मैथोडिस्ट गिरिजाघर के बीच सर्वधर्म संभाव स्थल के रूप् में ऐतिहासिक फ्लैट क्षेत्र, एशिया के सर्वाधिक ऊंचाई वाले चिड़ियाघरों में शुमार नैनीताल जू (2100 मी.), 120 एकड़ भूमि में फैला ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस की गौथिक शैली में बनी प्रतिमूर्ति राजभवन, 18 होल वाला गोल्फ ग्राउण्ड, झण्डीधार जहां आजादी के दौर में स्थानीय दीवानों ने तिरंगा फहराया था, रोप-वे की सवारी, रोमांच पैदा करने वाला केव गार्डन, प्रेमियों के स्थल ´लवर्स प्वाइंट´ व डौर्थी सीट, कई फिल्मों में दिखाए गए लेक व्यू प्वाइंट, हनुमानगढ़ी मन्दिर आदि स्थानों पर घूमा जा सकता है। निकटवर्ती एरीज से अनन्त ब्रह्माण्ड में असंख्य तारों व आकाशगंगाओं को खुली आंखों से निहारा जा सकता है, जो सामान्यतया बड़े शहरों से `प्रकाश प्रदूषण´ के कारण नहीं देखे जा सकते हैं।

नैनीताल जितना खूबसूरत है, उसके नजदीकी स्थल भी जैसे हार में नगीना हैं. हिमालय दर्शन से छोड़ा आगे निकलें तो किलवरी (वरी यानी चिन्ताओं को किल करने का स्थान) नामक स्थान से हिमालय को और अधिक करीब से निहारा जा सकता है। यहां से कुमाऊँ की अन्य पर्वतीय स्थलों द्वाराहाट, रानीखेत, अल्मोड़ा व कौसानी आदि की पहाड़ियां भी दिखाई देती हैं। वातावरण की स्वच्छता में लगभग 4 किमी दूर स्थित 'लेक व्यू प्वाइंट' ने सरोवरनगरी को `बर्ड आई व्यू´ से देखने का अनुभव भी अलौकिक होता है। खगोल विज्ञान एवं अन्तरिक्ष में रुचि रखने वाले लोगों के लिए भी नैनीताल उत्कृष्ट है। निकटवर्ती स्थल पंगोठ, भूमियाधार, ज्योलीकोट व गेठिया में ´विलेज टूरिज्म´ के साथ दुनिया भर के अबूझे पंछियों से मुलाकात, रामगढ़ व मुक्तेश्वर की फल घाटी में ताजे फलों का स्वाद, सातताल, भीमताल, नौकुचियाताल, सरिताताल व खुर्प़ाताल में जल प्रकृति के अनूठे दर्शन मानव मन में नई हिलोरें भर देते हैं। कुमाऊं के अन्य रमणीक प्र्यटक स्थलों अल्मोड़ा, रानीखेत, कौसानी, बैजनाथ, कटारमल, बागेश्वर, पिण्डारी, सुन्दरढूंगा, काफनी व मिलम ग्लेशियरों, जागेश्वर, पिथौरागढ़ व हिमनगरी मुनस्यारी के लिए भी नैनीताल प्रवेश द्वार है।

शिक्षा नगरी के रूप में भी जाना जाता है नैनीताल

नैनीताल को यूं ही शिक्षा नगरी के रूप में नहीं जाना जाता है। दरअसल, इसके अंग्रेज निर्माताओं ने यहां की शीतल व शांत जलवायु को देखते हुऐ इसे विकसित ही इसी प्रकार किया। नैनीताल अंग्रेजों को अपने घर जैसा लगा था, और उन्होंने इसे `छोटी बिलायत´ के रूप में बसाया। सर्वप्रथम 1857 में अमेरिकी मिशनरियों के आने से यहां शिक्षा का सूत्रपात हुआ। उन्होंने मल्लीताल में ऐशिया का पहला मैथोडिस्ट चर्च बनाया, तथा इसके पीछे ही नगर के पहले अमेरिकन मिशनरी स्कूल की आधारशिला रखी, जो वर्तमान में सीआरएसटी स्कूल के रूप में नऐ गौरव के साथ मौजूद है। 1859 में यूरोपियन डायसन बॉइज स्कूल के रूप में वर्तमान के शेरवुड कालेज की स्थापना हुई। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और बांग्लादेश युद्ध के नायक फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ इसी स्कूल के छात्र रहे। 1869 में लड़कियों के लिए यूरोपियन डायसन गर्ल्स स्कूल भी खुला, जो वर्तमान में ऑल सेंट्स कालेज के रूप में विद्यमान है। पूर्व मिस इण्डिया निहारिका सिंह सहित न जाने कितनी हस्तियां इस स्कूल से निकली हैं। इसके अलावा 1877 में ओक ओपनिंग हाइस्कूल के रूप में वर्तमान बिड़ला विद्या मन्दिर, 1878 में वेलेजली गर्ल्स हाइस्कूल के रूप में वर्तमान कुमाऊं विश्व विद्यालय का डीएसबी परिसर, 1886 में सेंट एन्थनी कान्वेंट ज्योलीकोट तथा 1888 में सेंट जोजफ सेमीनरी के रूप में वर्तमान सेंट जोजफ कालेज की स्थापना हुई। इस दौर में यहां रहने वाले अंग्रेजों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते थे, और उन्हें अपने देश से बाहर होने या कमतर शिक्षा लेने का अहसास नहीं होता था। इस प्रकार आजादी के बाद 20वीं सदी के आने से पहले ही यह नगर शिक्षा नगरी के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। खास बात यह भी रही कि यहां के स्कूलों ने आजादी के बाद भी अपना स्तर न केवल बनाऐ रखा, वरन `गुरु गोविन्द दोउं खड़े, काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द बताय´ की विवशता यहां से निकले छात्र छात्राओं में कभी भी नहीं दिखाई दी। आज भी दशकों पूर्व यहां से निकले बच्चे वृद्धों के रूप में जब यहां घूमने भी आते हैं तो नऐ शिक्षकों में अपने शिक्षकों की छवि देखते हुऐ उनके पैर छू लेते हैं।

हर मौसम में सैलानियों का स्वर्ग

पहाड़ों का रुख यूँ सैलानी आम तौर पर गर्मियों में करते हैं। लेकिन सरोवरनगरी नैनीताल सर्दियों के दिनों यानी `ऑफ सीजन´ में भी सैलानियों का स्वर्ग बनी रहती है। यहां इन दिनों मौसम उम्मीद से कहीं अधिक खुशगवार, खुला व गुनगुनी धूप युक्त होता है, नैनीताल (समुद्र सतह से ऊंचाई 1938 मी.) हर मौसम में आया जा सकता है। यहां की हर चीज लाजबाब है, जिसके आकर्षण में देश विदेश के लाखों पर्यटक पूरे वर्ष यहां खिंचे चले आते हैं। सर्दियों में यहां होने वाली बर्फवारी के साथ गुनगुनी धूप भी पर्यटकों को आकर्षित करती है,इस दौरान यहां राज्य वृक्ष लाल बुरांश को खिले देखने का नजारा भी बेहद आकर्षित होता है। बरसातों में कोहरे की चादर में शहर का लिपटना और उसके बीच स्वयं भी छुप जाने का अनुभव भी अलौकिक होता है। गर्मियों की तो बात ही निराली होती है, मैदानी की झुलसाती गर्मी के बीच यहां प्रकृति ´एयरकण्डीशण्ड´ अनुभव दिलाती है। नैनी सरोवर में नौकायन के बीच पानी को छूना तो जैसे स्वर्गिक आनन्द देता है तो मालरोड पर सैर का मजा तो पर्यटकों के लिए अविस्मरणीय होता है। बरसातों में यहां कोहरे के रूप में बादलों को छूने का आनन्द अलौकिक होता है, तो बरसात में भीगने का भी अपना मजा होता है। गर्मियों की तो बात ही निराली है। इस मौसम में यहां ´एयरकण्डीशण्ड´ मौसम का आनन्द लिया जा सकता है। यहां की सर्वाधिक ऊंची चोटी नैना पीक ( 2611 मीटर) पर तो इन दिनों `दुनिया की छत´ पर खड़े होने का अनुभव अद्वितीय होता है। फिजाएं एकदम साफ खुली हुई, वातावरण में दूर दूर तक धुंध का नाम नहीं, ऐसे में सैकड़ों किमी दूर तक बिना किसी उपकरण, लेंस आदि के देख पाने का अनूठा अनुभव लिया जा सकता है। तब यहां न तो बेहद भीड़भाड़ व होटल न मिलने जैसी तमाम दिक्कतें ही होती हैं, सो ऐसे में यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य का पूरा आनन्द लेना सम्भव होता है। इन दिनों यहाँ एक साथ कई आकर्षण सैलानियों को अपनी पूरी नैसर्गिक सुन्दरता का दीदार कराने के लिए जैसे तैयार होकर बैठे रहते हैं। कई दिनों तक आसमान में बादलों का एक कतरा तक मौजूद नहीं रहता।

मसूरी व नैनीताल हैं देश की प्राचीनतम नगर पालिकाऐं

मसूरी व नैनीताल देश की प्राचीनतम नगर पालिकाऐं हैं। मसूरी 1842 और नैनीताल 1845 में पालिका बनाने की कवायद शुरू हुयी। 3 अक्टूबर 1850 को यहाँ औपचारिक रूप से तत्कालीन कमिश्नर लूसिंग्टन की अध्यक्षता तथा मेजर जनरल सर डब्ल्यू रिचर्ड, मेजर एचएच आर्नोल्ड, कप्तान डब्ल्यूपी वा व पीटर बैरन की सदस्यता में पहली पालिका बोर्ड का गठन हुआलिहाजा मसूरी को तत्कालीन नोर्थ प्रोविंस की प्रथम एवं नैनीताल को दूसरी नगरपालिका होने का गौरव हासिल है। इससे पूर्व 1688 में प्रेसीडेंसी एक्ट के तहत मद्रास, कलकत्ता व मुम्बई जैसे नगर प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत आते थे। तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कंपनी उस दौर में 1857 के गदर एवं अन्य कई युद्धों के कारण आर्थिक रूप से कमजोर हो गई थी, लिहाजा उसका उद्देश्य स्थानीय सरकारों के माध्यम से जनता से अधिक कर वसूलना था।

गांधीजी की यादें भी संग्रहीत हैं यहाँ

नैनीताल एवं कुमाऊं के लोग इस बात पर फख्र कर सकते हैं कि महात्मा गांधी जी ने यहां अपने जीवन के 21 खास दिन बिताऐ थे। वह अपने इस खास प्रवास के दौरान 13 जून 1929 से तीन जुलाई तक 21 दिन के कुमाऊं प्रवास पर रहे थे। इस दौरान वह 14 जून को नैनीताल, 15 को भवाली, 16 को ताड़ीखेत तथा इसके बाद अल्मोड़ा, बागेश्वर व कौसानी होते हुए हरिद्वार, दून व मसूरी गए थे, और इस दौरान उन्होंने यहां 26 जनसभाएं की थीं। कुमाऊं के लोगों ने भी अपने प्यारे बापू को उनके हरिजन उद्धार के मिशन के लिए 24 हजार रुपए का दान एकत्र कर दिया था। तब इतनी धनराशि के मायने आज के करोड़ों रुपऐ से भी कम थी। इस पर गदगद् गांधीजी ने कहा था विपन्न आर्थिक स्थिति के बावजूद कुमाऊं के लोगों ने उन्हें जो मान और सम्मान दिया है, यह उनके जीवन की अमूल्य पूंजी होगी। 14 जून का नैनीताल में सभा के दौरान उन्होंने निकटवर्ती ताकुल गांव में रात्रि विश्राम किया था। इस स्थान पर आज भी गांधीजी से जुड़ी कई यादें संग्रहीत हैं।

पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में सक्रिय भूमिका रही नैनीताल की

(पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान नैनीताल में शहीद हुए प्रताप सिंह का परिवार)

पृथक उत्तराखण्ड राज्य का आन्दोलन पहली बार एक सितम्बर 1994 को तब हिंसक हो उठा था, जब खटीमा में स्थानीय लोग राज्य की मांग पर शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे थे। जलियांवाला बाग की घटना से भी अधिक वीभत्स कृत्य करते हुए तत्कालीन यूपी की अपनी सरकार ने केवल घंटे के जुलूस के दौरान जल्दबाजी और गैरजिम्मेदाराना तरीके से जुलूस पर गोलियां चला दीं, जिसमें सर्वधर्म के प्रतीक प्रताप सिंह, भुवन सिंह, सलीम और परमजीत सिंह शहीद हो गए। यहीं नहीं उनकी लाशें भी सम्भवतया इतिहास में पहली बार परिजनों को सौंपने की बजाय पुलिस ने `बुक´ कर दीं। यह राज्य आन्दोलन का पहला शहीदी दिवस था। इसके ठीक एक दिन बाद मसूरी में यही कहानी दोहराई गई, जिसमें महिला आन्दोलनकारियों हंसा धनाई व बेलमती चौहान के अलावा अन्य चार लोग राम सिंह बंगारी, धनपत सिंह, मदन मोहन ममंगई तथा बलबीर सिंह शहीद हुए। एक पुलिस अधिकारी उमा शंकर त्रिपाठी को भी जान गंवानी पड़ी। इससे यहां नैनीताल में भी आन्दोलन उग्र हो उठा। यहां प्रतिदिन शाम को आन्दोलनात्मक गतिविधियों को `नैनीताल बुलेटिन´ जारी होने लगा। रैपिड एक्शन फोर्स बुला ली गई और कर्फ्यू लगा दिया गया। इसी दौरान यहां एक होटल कर्मी प्रताप सिंह आरपीएफ की गोली से शहीद हो गया। इसकी अगली कड़ी में दो अक्टूबर को दिल्ली कूच रहे राज्य आन्दोलनकारियों के साथ मुरादाबाद और मुजफ्फरनगर में ज्यादतियां की गईं, जिसमें कई लोगों को जान और महिलाओं को अस्मत गंवानी पड़ी।

नैनीताल से पढ़ा था बांग्लादेश के नायक ने अनुशासन का पाठ

1971 में पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग राज्य की मान्यता दिलाने के लिए लड़ी गई लड़ाई के नायक फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने नैनीताल से अनुशासन का पाठ पढ़ा था। यह वह जगह है, जहां के शेरवुड कालेज से सैम नाम का यह बालक पांचवी से सीनियर कैंब्रिज (11वीं) तक पढ़ा। आज से पूर्व शायद वही सबसे बुजुर्ग शेरवुडियन भी थे। उनका नैनीताल से हमेशा गहरा रिश्ता रहा। नैनीताल भी हमेशा उनके लिए शुभ रहा। सैम नैनीताल के शेरवुड कालेज में वर्ष 1921 में पांचवी कक्षा में भर्ती हुए थे। शुरू से पढ़ाई में मेधावी होने के साथ खेल कूद एवं अन्य शिक्षणेत्तर गतिविधियों में भी वह अव्वल रहते थे, जिसकी तारीफ स्कूल के तत्कालीन प्रधानाचार्य सीएच डिक्कन द्वारा हर मौके पर खूब की जाती थी। हर वर्ष उनका स्कूल में प्रदर्शन अव्वल रहता था। वर्ष 1928 में सीनियर कैंब्रिज कर लौट गए थे, लेकिन इस नगर और स्कूल को नहीं भूले। बताते हैं कि यहां से जाने के तुरन्त बाद उनका आईएमए में चयन हो गया था। स्कूल से जाने के बाद मानेकशॉ 1969 में एक बार पुन: शेरवुड के ऐतिहासिक मौके पर वापस लौटे। स्कूल की स्थापना की स्वर्ण जयन्ती पर मनाए गए विशेष वार्षिकोत्सव में उन्होंने बतौर मुख्य अतिथि भाग लिया। इस दौरान वह यहां के बच्चों से खुलकर मिले, और उन्हें अनुशासन व मेहनत के बल पर जीवन में सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। इसे संयोग कहें या कुछ और लेकिन नैनीताल ने इसी दौरान उन्हें एक बार फिर उनके साथ सुखद समाचार दिलाया। वह समाचार था उनके देश का थल सेनाध्यक्ष बनने का। इसके बाद ही पाकिस्तान से हुए 1971 के युद्ध में वह भारत की जीत के नायक बने और विश्व मानचित्र पर बाग्लादेश के नाम से एक नए देश का प्रादुर्भाव हुआ। माना जाता है कि वह जीवित बचे सबसे बुजुर्ग `शेरवुडियन´ थे। उनके जीवन में आए चरमोत्कर्ष में नैनीताल और यहां के शेरवुड कालेज की महत्ता को भी निसन्देह स्वीकार किया जाता है।

यहीं का था `एजे कार्बेट फ्रॉम नैनीताल´

जिम कार्बेट का जन्म 25 जुलाई को नैनीताल में हुआ था। उन्होंने अपना पूरा जीवन नैनीताल के अयारपाटा स्थित गर्नी हाउस और कालाढुंगी स्थित `छोटी हल्द्वानी´ में बिताया। नैनीताल एवं उत्तराखण्ड से गहरा रिश्ता रखने वाले जिम ने 1947 में देश विभाजन की पीड़ा से आहत होकर एवं अपनी अविवाहित बहन मैगी की चिन्ता के कारण देश छोड़ा, और कीनिया के तत्कालीन गांव और वर्तमान में बड़े शहर नियरी में अपने भतीजे टॉम कार्बेट के माध्यम से इसलिए बसा कि वहां का माहौल व परंपराएं भी भारत और विशेशकर इस भूभाग से मिलती जुलती थी। जिम वहां विश्व स्काउट के जन्मदाता लार्ड बेडेन पावेल के घर के पास `पैक्सटू´ नाम के घर में अपनी बहन के साथ रहे, और वहीं 19 अप्रैल 1975 को आखरी सांस ली। घर के पास में ही स्थित कब्र में उन्हें पावेल की आलीशान कब्र के पास ही दफनाया गया, खास बात यह थी कि उनकी कब्र पर परंपरा से हटकर उनके मातृभूमि भारत व नैनीताल प्रेम को देखते हुए कब्र पर नैनीताल का नाम भी खोदा गया। उनके नैनीताल प्रेम को इस तरह और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है कि नियरी के पास ही स्थित वन्य जीवन दर्शन के लिहाज से विश्व के सर्वश्रेश्ठ व अद्भुत `ट्री टॉप होटल´ में सात पुस्तकें पूर्णागिरि मन्दिर पर `टेम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं´, `माई इण्डिया´, `जंगल लोर´, `मैन ईटिंग लैपर्ड आफ रुद्रप्रयाग´ तथा `ट्री टॉप´ पुस्तकें लिखीं। इस होटल में जिम जब भी जाते थे, आवश्यक रूप से होटल के रिसेप्सन पर अपना परिचय `एजे कार्बेट फ्रॉम नैनीताल´ के रूप में लिखा करते थे, जिसे आज भी वहां देखा जा सकता है।

(नैनीताल में अपने परिवार के साथ जिम कार्बेट बीच में खड़े)

गत वर्ष कीनिया में जिम कार्बेट के आखिरी दिनों की पड़ताल कर लौटे नैनीताल निवासी भारतीय सांस्कृतिक निधि `इंटेक´ की राज्य शाखा के सहालकार परिषद अध्यक्ष पद्मश्री रंजीत भार्गव इसकी पुष्टि करते हैं। वह बताते हैं जिस प्रकार नैनीताल में जिम का पैतृक घर गर्नी हाउस और छोटी हल्द्वानी सरकार की ओर से उपेक्षित हैं, उसी तरह नियरी में उनकी कब्र भी धूल धूसरित स्थिति में है।

(अभी यह पोस्ट निर्माणाधीन है, कोशिश है कि इसमें नैनीताल के अधिकाधिक पहलुओं को शामिल किया जाए. आप भी इसमें सहयोग अथवा संसोधन करना चाहते हैं तो नीचे कमेंट्स से दे सकते हैं)